श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
एम्पेरुमानार (श्री रामानुजाचार्य) और् वन्गि पुरत्तु नम्बि
जन्म नक्षत्र: जानकारी प्राप्त नहीं
अवतार स्थल: जानकारी प्राप्त नहीं (संभवतः वन्गिपुरम जो उन के पिताश्री का पैतृक गाँव है या श्रीरंगम, जहाँ मणक्काल् नम्बि के शिष्य बनने के बाद उन के पिताश्री वन्गि पुरत्तु आचि निवास करते थे)
आचार्य: एम्पेरुमानार (श्री रामानुजाचार्य)
शिष्य: सिरियाथ्थान
रचना: विरोधी परिहार
वन्गि पुरत्तु आचि, मणक्काल् नम्बि के शिष्य थे। वन्गि पुरत्तु नम्बि, जो वन्गि पुरत्तु आचि के पुत्र हैं , वे एम्पेरुमानार के शिष्य हुए।
विरोधी परिहार ग्रंथ (जो हमारे सम्प्रदाय के उत्कृष्ट ग्रंथो में से एक है) के प्रकाशन में उनकी अहम भूमिका थी। एक बार वन्गि पुरत्तु नम्बि, एम्पेरुमानार के पास जाते हैं और उनसे पूछते हैं कि संसार में रहते हुए एक प्रपन्न को क्या-क्या बाधाओं का सामना करना पड़ता है? एम्पेरुमानार उन्हें प्रपन्न के सामने आने वाली 83 बाधाओं की सूची बताते हैं। वन्गि पुरत्तु नम्बि ने शब्दशः इन सभी 83 बाधाओं को विस्तृत विवरण के साथ “विरोधी परिहार” नामक ग्रंथ में संग्रहित किया है। इस ग्रंथ में हमारे जीवन के सभी पहलुओं का परत दर परत विश्लेषण किया गया है और सभी पहलुओं के प्रभावी प्रबंधन के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश प्रस्तुत किया गया है।
वन्गि पुरत्तु नम्बि के पुत्र का नाम वन्गि पुरत्तु आचि है और कुछ द्रष्टांतो में उनके विषय में चर्चा की गयी है।
हमारे पूर्वाचार्यों के व्याख्यानों के कई उदाहरणों में नम्बि की महिमा को देखा जा सकता है। उनमें से कुछ हम अब देखते है:
- नाच्चियार तिरुमोळि 9.6 – पेरियावाच्चान पिल्लै व्याख्यान –आण्डाल, भगवान की स्तुति करते हुए कहती है कि भगवान के पास श्री महालक्ष्मीजी के रूप में दिव्य संपत्ति है। इसी संबंध में एक बार, वन्गि पुरत्तु नम्बि अपने शिष्य सिरियाथ्थान को यह निर्देश देते हैं कि – “बहुत से मत /सिद्धांत किसी परम शक्ति को स्वीकार करते हैं, परन्तु हम (श्रीवैष्णव) शास्त्र संमत राय को स्वीकार करते हैं– कि श्रीमन्नारायण भगवान ही परमेश्वर है और जीव के एकमात्र रक्षक है”।
- पेरिय तिरुमोळि 6.7.4 – पेरियावाच्चान पिल्लै व्याख्यान – इस पासूर में तिरुमंगै आलवार बताते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण (जो स्वयं परमेश्वर है) यशोदा मैया से डरते थे और माखन चोरी करते हुए पकडे जाने पर रुदन शुरू कर देते थे। इस संबंध में एक बहुत सुन्दर दृष्टांत बताया गया है। एक बार वन्गि पुरत्तु नम्बि, एम्पेरुमानार से तिरुवर्धन क्रम (घर में दैनिक पूजा करने की प्रक्रिया) सीखने की प्रार्थना करते हैं। एम्पेरुमानार अपनी व्यस्ताओं के चलते नम्बि को सिखाने का समय नहीं निकल पाते हैं। परंतु एक बार नम्बि की अनुपस्थिति में, एम्पेरुमानार कुरेश और हनुमत दासार को तिरुवर्धन क्रम का अध्यापन प्रारंभ कर देते हैं। उसी समय नम्बि कक्ष में प्रवेश करते हैं और उन्हें देखकर एम्पेरुमानार कुछ विशेष अनुभव करते हैं। वे कहते हैं “मेरे मन में यह संदेह लम्बे समय से था, परंतु अब मैं समझ सकता हूँ कि भगवान (सर्वश्रेष्ठ होने पर भी) माखन की चोरी करते हुए पकडे जाने पर क्यों भयभीत हो जाया करते थे। मैं अभी उन्हीं भावनाओ का अनुभव कर रहा हूँ। तुम्हारे विनती करने पर भी मैंने तुम्हें तिरुवर्धन क्रम नहीं सिखाया और तुम्हारी अनुपस्थिति में वही ज्ञान मैंने इन दोनों को सीखना आरंभ कर दिया। अपितु मैं आचार्य हूँ और तुम शिष्य और मुझे तुमसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है पर अपने इस कार्य के कारण मुझे तुम्हें देखकर भय का अनुभव हो रहा है।” हमारे एम्पेरुमानार में ऐसी महानता है कि जब उनसे एक गलती हो गयी तब उन्होंने सभी के सामने उसे स्वीकार किया और इसके द्वारा एक महान सिद्धांत को सुंदरता से समझाया।
- तिरुविरुथ्थम – नम्पिल्लै इदु व्याख्यान – प्रस्तावना – नम्पिल्लै आलवार के विषय में बताते हैं कि नम्मालवार पहले एक संसारी थे और भगवान की निर्हेतुक कृपा से वे आलवार हुए। परन्तु आलवार के वैभव के अनुरूप विभिन्न आचार्यो ने विभिन्न रूपों में उनका वर्णन किया है – कुछ उन्हें मुक्तात्मा की तरह देखते हैं (वह आत्मा जो संसार से मुक्त हो गया है); अरूलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार के एक शिष्य के मतानुसार वे मुक्तजीव नहीं हैं पर प्रतिष्ठा में उन्हीं के सामान है; कुछ के अनुसार वे नित्यसूरी हैं; वन्गि पुरत्तु नम्बि कहते हैं कि नम्मालवार स्वयं भगवान ही हैं।
- तिरुवाय्मोळि 7.2.7 – नम्पिल्लै इदु व्याख्यान – इस “कंगुलुम पगलुम”, दशक में नम्मालवार माता के भाव में गाते हैं, जहाँ आलवार की मनःस्थिति उनकी माता द्वारा भगवान को बताई जा रही है। दशक के हर पासूर में आलवार (माता के भाव में) भगवान तिरुवरंग की पुकार करते हैं परंतु इस पासूर में वे ऐसा नहीं करते हैं। वन्गि पुरत्तु नम्बि इसे इस तरह समझाते हैं – जब किसी रोगी की स्थिति बहुत बिगड़ जाती है तब वैद्य रोगी के संबंधियों को प्रत्यक्ष् देखते हुए उन्हें सूचित नहीं करता है अपितु वह किसी ओर दिशा में देखते हुए रोगी की दशा उस के संबंधियों को बताता है। वैसे ही, क्यूंकि भगवान के विरह में आलवार की अवस्था बहुत ही गंभीर है, इसलिए इस पासूर में आलवार (मातृ भाव में) भगवान की पुकार नहीं करते अपितु अपनी उस स्थिति की पीड़ा प्रदर्शन करते हैं।
- तिरुवाय्मोळि 9.2.8 – नमपिल्लै इदु व्याख्यान – श्रीरंगम के एक श्रीजयंती पुरप्पाडु में वन्गि पुरत्तु नम्बि ग्वालिनों के एक समूह में शामिल हो जाते हैं और वही से भगवान का मंगलशासन करते हैं । दाशरथि स्वामीजी उनसे पूछते हैं की आपने उन ग्वालिनों के समूह में रहकर भगवान के मंगलशासन में क्या कहा? नम्बि कहते हैं “मैंने कहा विजयस्व”। दाशरथि स्वामीजी कहते हैं उन ग्वालिनों के साथ रहते हुए आपको भगवान का मंगल उन्हीं की बोली में करना चाहिए था, न की संस्कृत जैसी कठिन भाषा में।
वार्तामाला के कुछ उदाहरणों में वन्गि पुरत्तु नम्बि (और उन के पुत्र) के गौरव को दिखाया गया है। अब हम उन्हें देखते हैं:
- वार्तामाला 71 – वन्गि पुरत्तु नम्बि, यतिवर चूड़ामणि दासर को निर्देश देते हैं– जब एक जीवात्मा (जो सूक्ष्म और अक्षम/ असमर्थ है), भगवान को प्राप्त करता है (जो सर्व शक्तिमान, सर्व समर्थ और सर्व व्यापी है), तब उसमें स्वयं जीवात्मा या किसी और का कोई स्वतंत्र प्रयास नहीं है अपितु भगवान की ही निर्हेतुक कृपा है। जीवात्मा के पास केवल दो ही विकल्प है – या तो आचार्य के कृपा पात्र बनकर, द्वय महा मंत्र का अनुसन्धान करते हुए, परमपद जाये या नित्य संसारी बनकर हमेशा के लिए इसी संसार चक्र में पड़े रहे।
- वार्तामाला 110 – वन्गि पुरत्तु आचि, किडाम्बी आच्चान् को उपदेश देते हैं कि– जो जीवात्मा अनंत समय से इस संसार चक्र में पड़ा है, उन्हें यह विश्वास करना चाहिए कि श्रीलक्ष्मीजी उस जीव को भगवान के श्रीचरणों तक पहुँचाने में अवश्य सहायता करेंगी।
- वार्तामाला 212 – यहाँ एक सुंदर घटना का वर्णन है। वन्गि पुरत्तु आचि की एक श्रीवैष्णवी शिष्या थी जिनका नाम त्रैलोक्यल थी। एक बार अनंतालवार के श्रीरंगम आगमन पर, वह उनके पास रहकर 6 महीने तक उनकी सेवा करती है। अनंतालवार के लौटने पर जब वह पुनः आचि के पास जाती है तब आचि उनसे उनकी अनुपस्थिति का कारण पूछते हैं। वे बताती हैं कि वे अनंतालवार की सेवा में थी। आचि उनसे पूछते हैं कि क्या उन्होंने तुम्हें किसी बहुमूल्य सिद्धांत का उपदेश दिया। इसके प्रतिउत्तर में वे कहती है “मैंने बहुत वर्षो आपकी सेवा की –आपने दर्शाया की मैं भगवान के श्रीचरण कमलों पर पूरी तरह से आश्रित हूँ। इन 6 महीनो में उन्होंने दर्शाया की मुझे आप के श्रीचरण कमलों पर ही सदा आश्रित होना चाहिए। अनंतालवार ने उस वैष्णवी के द्वारा यह समझाया की हमें सदा श्री आचार्य चरणों पर ही पूर्ण विश्वास करके रहना चाहिए और इस दृष्टांत से यह बात समझा जा सकता है।
पिल्लै लोकाचार्य, मुमुक्षुपडि में वर्णित वन्गि पुरत्तु नम्बि के चरम श्लोक के सार के विषय में बताते हैं। चरम श्लोक प्रकरण के इस भाग में, चरम श्लोक की महिमा को पूरी तरह से दर्शाया गया है। सूत्र 265 – “वन्गि पुरत्तु नम्बि कहते हैं कि श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को विभिन्न द्रष्टांतो द्वारा अपनी श्रेष्ठता और शक्ति दर्शाने के पश्चात चरम श्लोक का उपदेश किया, इसलिए चरम श्लोक के गूढ़ रहस्य को समझना अर्जुन के लिए आसान हुआ। इसके व्याख्यान में, मामुनिगल कहते हैं कि वन्गि पुरत्तु नम्बि “आप्था तमर” है – वह जो हमारी सच्ची आध्यात्मिक भलाई में पूर्णतः लग्न है।
इस प्रकार, हम वन्गि पुरत्तु नम्बि के गौरवशाली जीवन के कुछ झलक देखी है। वह पूरी तरह से भागवत निष्ठा में स्थित थे और स्वयं एम्पेरुमानार को बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलों में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।
वन्गि पुरत्तु नम्बि की तनियन:
भारद्वाजा कुलोद्भूतम् लक्ष्मणार्य पदाश्रितम् ।
वन्दे वन्गिपुराधीशम् सम्पूर्णायम् कृपानिधिम् ।।
अडीयेन भगवती रामानुजदासी
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