श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
तिरुनक्षत्र: ज्ञात नहीं
अवतार स्थल: ज्ञात नहीं
आचार्य: श्रीवरवरमुनि स्वामीजी
रचनायें: इयरपा के सभी तिरुवंतादी पर व्याख्यान, तिरुविरुत्तम् के लिए व्याख्यान (प्रथम 15 पासूरों), यतिराज विंशति के लिए व्याख्यान, वाळि तिरुनामं
प्रणतार्तिहर नाम से जन्मे, वे अप्पिल्लै नाम से प्रसिद्ध हुए। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रिय शिष्य थे और अष्ठ दिग्गजों में एक थे।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, पेरिय पेरुमाल के निर्देशानुसार श्रीरंगम में निवास करते थे और हमारे सत-संप्रदाय की कीर्ति का प्रचार-प्रसार करते हुए अपना समय व्यतित करते थे। उनके वैभव को जानकर बहुत से आचार्य पुरुष और विद्वान उनके शिष्य हुए।
एरुम्बी अप्पा भी श्रीरंगम पहुंचे और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य हुए। उन्होंने कुछ समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मार्गदर्शन में बिताया और फिर श्रीरंगम से प्रस्थान करने का विचार किया। कुछ समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की सेवा करके, वे एरुम्बी (अपने पैतृक गाँव) लौटना चाहते थे। परंतु कुछ अशुभ संकेतों को देखकर, वे वहां से प्रस्थान नहीं करते। जब वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के समक्ष पहुँचते हैं, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं “आप प्रतीक्षा कीजिये और देखिए कि कुछ शुभ प्रकट होने वाला है। हम आपको उसके पश्चाद यहाँ से जाने की अनुमति देंगे”। इसे सुनने वाले सभी अति आनंदित होते हैं और उस शुभ घटना की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
उस समय, अप्पिळ्ळै और अप्पिळ्ळार अपने परिवार और अन्य सहयोगियों के साथ श्रीरंगम पधारे और भगवान रंगनाथ की स्तुति की। हालाँकि उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की कीर्ति के बारे में सुना था, परंतु उनका श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति कोई विशेष अनुराग नहीं था। वे महान विद्वान् थे, और अपने शिष्यों और अपार संपत्ति (वाद-विवाद जीतने पर अर्जित की गयी) के साथ कावेरी नदी के तट पर कुछ दिनों के लिए ठहरे। वहां रहते हुए उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की कीर्ति के बारे में सुना और सुना की बहुत से महानुभावों जैसे कन्दाडै अण्णन्, एरुम्बी अप्पा आदि ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का आश्रय प्राप्त किया। उन्हें यह जानकार बहुत आश्चर्य हुआ कि ऐसे महान आचार्यों ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का आश्रय प्राप्त किया। शास्त्रों में एरुम्बी अप्पा की दक्षता को जानते हुए, अप्पिळ्ळार विचार करते हैं कि यदि ऐसे शास्त्र में प्रवीण एरुम्बी अप्पा ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का आश्रय लिया है तो उनमें कुछ विशेष बात तो अवश्य होगी। अप्पिळ्ळार अपने एक निकट सहयोगी, जो बहुत बुद्धिमान थे, के साथ श्रीरंगम में जीयर मठ के समीप जाते हैं। बाहर ठहरकर, वे अपने सहयोगी को अंदर भेजते हैं और उनसे कहते हैं कि वे ऐसी घोषणा करे कि “अप्पिळ्ळान पधारे हैं” और अगर एरुम्बी अप्पा गोष्ठी में उपस्थित होंगे तों वे उन्हें पहचान कर उनका स्वागत करेंगे। उनके सहयोगी अंदर जाते हैं और एरुम्बी अप्पा को पहचान कर कहते हैं “अप्पिळ्ळान पधारे हैं” और यह सुनकर एरुम्बी अप्पा अत्यंत प्रसन्न होते हैं और विचार करते हैं कि “यह अप्पिळ्ळार के लिए एक नई भौर है”। एरुम्बी अप्पा तुरंत अप्पिळ्ळार से भेंट करने हेतु बाहर आते हैं। अप्पिळ्ळार एरुम्बी अप्पा के बाजुओं में शंख चक्र अंकित देखते हैं और समझ जाते हैं कि वे हाल ही में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य हुए हैं। अप्पिळ्ळार, एरुम्बी अप्पा को दंडवत प्रणाम करते हैं और एक दूसरे का कुशल मंगल पूछते हैं। एरुम्बी अप्पा उन्हें सभी घटना क्रमों के विषय में बताते हैं जिनके माध्यम से भगवान ने उन्हें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य होने का निर्देश दिया। अप्पिळ्ळार धीरे धीरे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की कीर्ति का अनुभव करते हैं और एरुम्बी अप्पा से कहते हैं कि अप्पिळ्ळै और कई अन्य भी यहाँ पहुंचे हैं और वे कावेरी के तीर पर ठहरे हुए हैं। वे एरुम्बी अप्पा से वहां पधारने का अनुरोध करते हैं (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की महिमा बताने के लिए और सभी को सुधारने के लिए)। एरुम्बी अप्पा, अप्पिळ्ळार के आशय को जानकर प्रसन्न होते हैं, और वानमामलै जीयर के समक्ष जाकर उन्हें इस बात की सूचना देते हैं। वे वानमामलै जीयर से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें आशीर्वाद प्रदान करे कि सभी का सुधार हो और सभी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपना आचार्य स्वीकार करें। फिर वे कावेरी तट पर पहुँचते हैं और सभी को संप्रदाय के मूलभूत सिद्धांत समझाते हैं।
उस समय वानमामलै जीयर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के समक्ष जाकर उन्हें बताते हैं कि अप्पिळ्ळार और अप्पिळ्ळै नाम के महान विद्वान् कावेरी के तट पर आये हैं। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को बताते हैं कि वे आचार्य संबंध के लिए तत्पर हैं। यह दर्शाया गया है कि आचार्य संबंध के पूर्व 6 बातों का विचार होना चाहिए और इस सिद्धांत को निम्न श्लोक में बताया गया है।
ईश्वरस्य च सौहाद्रम् यतरुच्चा सुह्रुदं तथा विष्णो: कटाक्षम् अद्वेषम अभिमुख्यम च सात्विकै: संभाषणं शदेठानी
- सर्व प्रथम, क्यूंकि भगवान कोमल ह्रदय हैं, वे सभी जीवों के भलाई के विषय में ही सोचते हैं|
- द्वितीय, अच्छाई के लिए प्रासंगिक इच्छा/ क्रिया है।
- तृतीय, भगवान की कृपामई दृष्टि जीवात्मा पर पड़ती है।
- चतुर्थ, जीवात्मा अद्वेषम् प्रकट करता है– वह भगवान की कृपा को नहीं रोक सकता।
- पंचम, जीवात्मा अभिमुख्यम् प्रकट करता है – वह भगवान की ओर झुकता है।
- छठा, वह भागवतों के साथ भागवत विषय की चर्चाओं में संलग्न होगा जो उसका तुरंत सुधार करेंगे और उसे आचार्य के पास भेज देंगे।
वानमामलै जीयर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहते हैं कि एरुम्बी अप्पा के साथ विचार विमर्श करके उनका कल्याण हुआ है और उन सभी में उनके शिष्य होने की पात्रता है। इसलिए, आप भी, जो सदा जीवात्माओं के कल्याण के विषय में सोचते हैं उन सभी को स्वीकार करें और एरुम्बी अप्पा और मेरी मनोकामना को पूर्ण कर उन सभी पर कृपा करें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हैं और कहते हैं “श्री रामानुज स्वामीजी ने अपना दिव्य मनोरथ मुझे दर्शाया है” । वे वानमामलै जीयर से कहते हैं कि उनमें से एक का दास्य नाम (पञ्च संस्कार के पश्चाद) रामानुज होगा। वानमामलै जीयर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की आज्ञा लेकर जाते हैं और उनका स्वागत करते हैं और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उसे स्वीकार करते हैं। वानमामलै जीयर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पधारने की जानकारी देने के लिए एक श्रीवैष्णव को अप्पिळ्ळार के पास भेजते हैं।
वानमामलै जीयर और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अन्य शिष्यों के आने का समाचार सुनकर, अप्पिळ्ळार अति आनंदित हो जाते हैं और अपने सहयोगियों से कहते हैं कि उनकी प्रिय हरी शॉल लाये और उसे जमीन पर बिछा दे, जिससे वानमामलै जीयर और अन्य सभी उस पर अपने चरण रखे। वे अपने सहयोगियों से कहते हैं कि उनके चरण कमलों की रज को एकत्रित करें और उनके पास लाये, जिससे वे उसे अपने मस्तक पर सजा सके। फिर वे फल और ताम्बुल लेकर आये और वानमामलै जीयर का स्तुति के साथ स्वागत किया। उन्होंने दंडवत प्रणाम किया और उनकी चरण कमल की रज को अपने मस्तक पर स्वीकार किया। एक दुसरे का कुशल मंगल जानने के पश्चाद, वानमामलै जीयर सभी को कोयिल अण्णन् के निवास पर ले जाते हैं। कोयिल अण्णन् विस्तार से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के यश और महिमा का गुणगान करते हैं और कहते हैं कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्वयं श्री रामानुजाचार्य स्वामीजी के पुनरावतार हैं। यह सब सुनकर, अप्पिळ्ळार और अप्पिळ्ळै, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का आश्रय लेने का निर्णय करते हैं और वे सभी, फलों, ताम्बूल और अन्य भेंट के साथ जीयर मठ पहुँचते हैं। वे तिरुमलै आलवार मण्डप में पहुँचते हैं जहाँ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी दीप्तिमान होकर विराजे हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अद्वितीय प्रसन्न स्वरुप में दिखाई दिए जिनके सुंदर व व्यापक कंधे, वक्षस्थल, नेत्र आदि हैं। उन्होंने स्वच्छ केसरिया वस्त्र और त्रिदंड धारण किया है। अपने मुख पर सुंदर मुस्कान के साथ, वे सभी का स्वागत करते हैं। उनका अत्यंत सुंदर स्वरुप देखकर, अप्पिळ्ळै और अप्पिळ्ळार उनके चरण कमलों में दंडवत प्रणाम करते हैं और उनकी स्वीकृति तक प्रतीक्षा करते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अति स्नेह से उनकी भेंट स्वीकार करते हैं और उन्हें दिव्य आवश्यक सिद्धांत समझाते हैं जिसे सुनकर दोनों विद्वान् अचंभित रह जाते हैं। वे तुरंत श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से प्रार्थना करते हैं कि उनकी पञ्च संस्कार की विधि संपन्न करें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए, उन्हें पञ्च संस्कार प्रदान करते हैं और उन्हें अपने शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं। फिर वे उन्हें क्रमानुसार पेरिय पेरुमाल की सन्निधि में लेकर आते हैं (यह वह क्रम है जिसका श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरंगम मंदिर में मंगलाशासन करते हुए अनुसरण करते थे, जैसा की पूर्व दिनचर्या में दर्शाया गया है – आण्डाल, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, सेनै मुदलियार, गरुडालवार, श्री रंगनाथ, श्री रंगनाच्चियार, परमपदनाथन्) और उन महान विद्वानों को भगवान को समर्पित करते हैं। भगवान के मंगलाशासन के पश्चाद, वे मठ में लौटते हैं और जैसा शास्त्र सन्मत है कि एक शिष्य को अपने आचार्य का शेष प्रसाद ग्रहण करना चाहिए, अप्पिळ्ळै और अप्पिळ्ळार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का शेष प्रसाद स्वीकार करते हैं।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य आदेश पर अप्पिळ्ळै तिरुवंतादी पर व्याख्यान की रचना करते हैं और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को उनके बहुत से दिव्य प्रबंध सम्बंधित कैंकर्य में सहायता करते हैं।
इस तरह हमने अप्पिळ्ळै के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र आचार्य अभिमान की प्राप्ति हो।
अप्पिळ्ळै की तनियन:
कांतोपयन्तृ योगीन्द्र चरणांभुज शठपदम् ।
वात्सान्वयभवं वन्दे प्रणतार्तिहरं गुरुं ।।
-अदियेन् भगवति रामानुजदासी
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