श्री:
श्रीमते शठकोपाये नमः
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनयेनम:
श्री वानाचलमहामुनयेनमः
तिरुनक्षत्र: चैत्र, अश्विनी
अवतार स्थल: सालग्राम (कर्नाटक)
आचार्य: एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी)
स्थान जहाँ परमपद प्राप्त किया: सालग्राम
रचनाएँ: यतिराज वैभव, रामानुज अष्टोत्तर सत् नाम् स्त्रोत्रं, रामानुज अष्टोत्तर सत् नामावली
अपनी तिरुनारायणपुर की यात्रा के दौरान, एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) मिथिलापुरी सालग्राम पहुँचते हैं, जहाँ वे मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) को निर्देश देते हैं कि वे स्थानीय जल के स्त्रोत (नदी) को अपने चरण कमलों से स्पर्श करें। मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) के चरण कमलों की पवित्रता से, जिन स्थानीय लोगों ने उस नदी में स्नान किया वे भी पवित्र हुए और एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के शिष्य हो गये। उन्हीं में से एक थे वडुग नम्बि, जिन्हें आंध्रपूर्ण नाम से भी जाना जाता है। एम्पेरुमानार, अपनी निर्हेतुक दया से, वडुग नम्बि का उद्धार करते हैं, उन्हें हमारे संप्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत सिखाते हैं और उन्हें आचार्य निष्ठा में पूर्णतः स्थापित करते हैं। और उसके बाद वडुग नम्बि एम्पेरुमानार से कभी अलग नहीं हुए।
वडुग नम्बि पूर्ण रूप से आचार्य निष्ठा में स्थित थे। वे एम्पेरुमानार की चरण पादुकाओं का प्रतिदिन अराधना किया करते थे।
एक बार एम्पेरुमानार के साथ यात्रा करते हुए, वडुग नम्बि अपने अर्चा भगवान (एम्पेरुमानार की पादुकायें) उसी पेटी में लेकर चले जिसमें एम्पेरुमानार के अर्चा भगवान विराजे थे। यह जानकार एम्पेरुमानार बहुत अचंभित होते हैं और वडुग नम्बि से पूछते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? वडुग नम्बि त्वरित उत्तर देते हैं “मेरे आराध्य भगवान भी आपके आराध्य भगवान के समान ही श्रेष्ठ है, इसलिए आपके भगवान के साथ मेरे भगवान के होने में कुछ भी गलत नहीं है”।
जब भी एम्पेरुमानार, पेरिय पेरुमाल का मंगलाशासन करने जाते थे, वे उनके दिव्य स्वरुप से आनंदित हो जाया करते थे। परंतु वडुग नम्बि, पूरे समय एम्पेरुमानार के दिव्य स्वरुप के दर्शन करके आनंदित हुआ करते थे। यह देखकर एम्पेरुमानार उनसे पेरिय पेरुमाल के सुंदर नेत्रों के दर्शन करने के लिए कहते हैं। वडुग नम्बि, तिरूप्पाणाळवार (योगिवाहन स्वामीजी) के शब्दों द्वारा कहते हैं “एन अमुदिनैक कण्ड कण्गल मर्रोंरिनैक काणावे” अर्थात “मेरे नेत्रों, जिन्होंने एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) का दिव्य स्वरुप देखा है, वे अब और कुछ भी नहीं देखेंगे”। ऐसा सुनकर एम्पेरुमानार उनकी आचार्य निष्ठा से बहुत प्रसन्न होते हैं और उन्हें आशीष देते हैं।
वडुग नम्बि नियमित रूप से एम्पेरुमानार का शेष प्रसाद पाया करते थे और उसे पाने के बाद, सम्मान से, वे अपने हाथ अपने मस्तक से पोंछ लिया करते थे (हाथों को जल से धोने के बजाये) – सामान्यतः भगवान/ आचार्य, आलवार का प्रसाद, जो अत्यंत पवित्र है, उसे पाने के पश्चाद हमें अपने हाथों को जल से नहीं धोना चाहिए, अपितु अपने हाथों को अपने मस्तक से पोंछना चाहिए। एक बार, यह देखकर एम्पेरुमानार अचंभित होते हैं और शेष प्रसाद पाने के बाद वे नम्बि को अपने हाथ धोने के लिए कहते हैं। नम्बि उनकी आज्ञा का पालन करते हैं और अपने हाथ धो लेते हैं। अगले दिन, जब एम्पेरुमानार को भगवत प्रसाद प्राप्त होता है, वे उसमें से थोडा पाकर, शेष वडुग नम्बि को प्रदान कर देते हैं। वडुग नम्बि उसे पाकर अपने हाथों को जल से धो लेते हैं। एम्पेरुमानार फिर से अचंभित होकर वडुग नम्बि से पूछते हैं कि भगवत प्रसाद पाने के बाद उन्होंने अपने हाथों को क्यों धोया। वडुग नम्बि, बड़ी ही विनम्रता और सुंदरता से उत्तर देते हैं “मैं तो केवल भगवान द्वारा दिए हुए कल के निर्देश का पालन कर रहा हूँ”। एम्पेरुमानार कहते हैं “आपने मुझे बड़ी सरलता से पराजित कर दिया” और उनकी निष्ठा की सराहना करते हैं।
एक बार वडुग नम्बि, एम्पेरुमानार के लिए दूध तैयार कर रहे थे। उस समय, नम्पेरुमाल की सवारी एम्पेरुमानार के मठ के बाहर से निकलती है। एम्पेरुमानार, वडुग नम्बि को बाहर बुलाते हैं पर वडुग नम्बि कहते हैं “अगर मैं आपके भगवान के दर्शन के लिए बाहर आऊंगा, तो मेरे भगवान का दूध जल जायेगा। इसलिए मैं नहीं आऊंगा”।
एक बार वडुग नम्बि के शरीर संबंधी (जो श्री वैष्णव नहीं थे) उनसे भेंट करने के लिए आते हैं। उनके जाने के पश्चाद वडुग नम्बि सभी बर्तन नष्ट कर देते हैं और स्थान को पूरी तरह से शुद्ध करते हैं। फिर वे मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) के निवास पर जाकर, उनके द्वारा त्याग दिए गए बर्तन उठाते हैं और उन्हें उपयोग करना प्रारंभ करते हैं। इस तरह वे स्थापित करते हैं कि जिनके पास शुद्ध आचार्य संबंध होता है, उनसे सम्बंधित सभी कुछ (यहाँ तक की उनकी त्याग की हुई वस्तुयें भी) पूरी तरह से शुद्ध/पवित्र होती है और हमारे लिए स्वीकार करने योग्य होती है।
एक बार एम्पेरुमानार तिरुवनंतपुरम जाते हैं और वहां अनंत-शयनम् भगवान के मंदिर का आगमन बदलने के बारे में सोचते हैं। परंतु भगवान की योजना कुछ और ही थी। इसलिए जब एम्पेरुमानार शयन करते हैं, भगवान उन्हें वहां से उठाकर तिरुक्कुरुन्गुडी दिव्य देश पहुंचा देते हैं। एम्पेरुमानार प्रातः जागकर, पास की नदी में स्नान करके, द्वादश उर्ध्वपूर्ण लगाकर (12 उर्ध्वपूर्ण), तिरुमण का शेष वडुग नम्बि को प्रदान करने के लिए वडुग नम्बि को पुकारते हैं(जो उस समय तिरुवनंतपुरम में थे)। तिरुक्कुरुन्गुडी नम्बि, स्वयं वडुग नम्बि का रूप लेकर उनके शेष तिरुमण (पवित्र मिट्टी) को स्वीकार करते हैं। तत्पश्चाद एम्पेरुमानार तिरुक्कुरुन्गुडी नम्बि को शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं।
- पेरियालवार तिरुमोली 4.3,1 – मणवाल मामुनिगल (वरवरमुनी स्वामीजी) व्याख्यान – यह पद “नाव कारियम” (ऐसे शब्द जिनका उच्चारण नहीं करना चाहिए) के विषय में दर्शाता है। वडुग नम्बि के जीवन की एक घटना यहाँ दर्शायी गयी है। एक बार, वडुग नम्बि के समीप, एक श्री वैष्णव तिरुमंत्र का उच्चारण करते हैं। उसे सुनकर, वडुग नम्बि (जो पुर्णतः आचार्य निष्ठा में स्थित हैं) कहते हैं “यह नाव कारियम है” और वहां से चले जाते हैं। इस संबंध में यह स्मरणीय है कि जब भी हम तिरुमंत्र, द्वय मंत्र और चरम श्लोक का ध्यान करते हैं, तब प्रथम हमें गुरु परंपरा का ध्यान करना चाहिए और उसके उपरांत ही रहस्यत्रय का ध्यान करना चाहिए। पिल्लै लोकाचार्य इसे श्री वचन भूषण दिव्य शास्त्र (सूत्र 274) में इस प्रकार दर्शाते हैं “जपत्वयं गुरु परम्परैयुम द्वयमुम” (गुरु परंपरा और द्वय महामंत्र का निरंतर ध्यान करते रहना चाहिए)।
- पेरियालवार तिरुमोली 4.4.7 – मणवाल मामुनिगल व्याख्यान – जब वडुग नम्बि परमपद के लिए प्रस्थान करते हैं, एक श्रीवैष्णव, अरुलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार को यह समाचार यह कहते हुए देते हैं कि “वडुग नम्बि ने परमपद की ओर प्रस्थान किया”। अरुलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार कहते हैं “क्यूंकि वडुग नम्बि एक आचार्य निष्ठ थे, आपको कहना चाहिए कि उन्होंने एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के चरण कमलों को प्राप्त किया। आपको यह नहीं कहना चाहिए कि उन्होंने परमपद के लिए प्रस्थान किया”।
- वडुग नम्बि ने यतिराज वैभवं नामक एक सुंदर ग्रंथ कि रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने दर्शाया कि 700 सन्यासी, 12000 श्री वैष्णव और कई वैष्णवीयाँ आदि, एम्पेरुमानार के अनुयायी थे और वे लोग सदा उनकी सेवा और पूजा किया करते थे।
पेरियवाच्चान पिल्लै, माणिक्क माला में दर्शाते हैं कि “वडुग नम्बि ने स्थापित किया है कि आचार्य का पद (स्थान) सबसे श्रेष्ठ है और केवल एम्पेरुमानार के लिए ही उपयुक्त है”।
पिल्लै लोकाचार्य वडुग नम्बि की महानता को श्री वचन भूषण दिव्य शास्त्र (सूत्र 411) में दर्शाते हैं –
वडुग नम्बि आलवानैयुम आण्डानैयुम इरुकरैयर एन्बर।
मामुनिगल समझाते हैं कि वडुग नम्बि, मधुरकवि आलवार के समान थे जिनके लिए नम्मालवार ही सब कुछ थे। कुरत्तालवान (कूरेश स्वामीजी) और मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) पूर्ण रूप से एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के आश्रित/ समर्पित थे – फिर भी समय समय पर वे भगवान का मंगलाशासन किया करते थे और इस क्रूर संसार को सहन करने में असमर्थ होने पर उनसे मोक्ष प्रदान करने की प्रार्थना करते थे। इसलिए वडुग नम्बि कहते हैं कि “यद्यपि उन दोनों का संबंध एम्पेरुमानार के साथ था, वे भगवान और एम्पेरुमानार दोनों पर निर्भर थे”।
अंततः, आर्ति प्रबंध (पासूर 11) में, मामुनिगल स्थापित करते हैं कि वडुग नम्बि का स्थान (आचार्य निष्ठ) ऐसा है, जिसे प्राप्त करने की उत्कट चाहना उनकी भी है और वे एम्पेरुमानार से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें भी वडुग नम्बि के समान बनने का आशीर्वाद दे। वडुग नम्बि की एम्पेरुमानार के प्रति इतनी अतुल्य श्रद्धा थी कि वे अलग से भगवान की पूजा में संलग्न नहीं होते थे। हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा यह स्थापित किया गया है कि जब हम आचार्य का पूजन करते हैं , भगवान का पूजन स्वतः ही हो जाता है। परन्तु जब हम भगवान की पूजा करते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हमनें अपने आचार्य का पूजन भी कर लिया। इसलिए, आचार्य की आराधना और उन पर पूर्ण निर्भरता हमारे संप्रदाय का सबसे अभीष्ट सिद्धांत है और मामुनिगल दर्शाते हैं कि इसे वडुग नम्बि ने पुर्णतः प्रकट किया है।
इस तरह हमने वडुग नम्बि के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे भागवत निष्ठा में पूर्णतः स्थित थे और एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।
वडुग नम्बि की तनियन:
रामानुजार्य सच्शिष्यम् सालग्राम निवासिनम् ।
पंचमोपाय संपन्नाम सालग्रामार्यम् आश्रये।।
-अदियेन् भगवति रामानुजदासी
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