सोमासियाण्डान् (सोमयाजि स्वामीजी)

  श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

ramanuja_srirangam

रामानुजाचार्य

जन्म नक्षत्र – चैत्र मास आर्द्रा नक्षत्र

अवतार स्थल – काराञ्ची

आचार्यरामानुजाचार्य

रचना श्रीभाष्य-विवरण , गुरु-गुणावली (रामानुजाचार्य कि महिमा के बारे में वार्ता), संक्षेप-षडर्थ

सोमासियाण्डान् (सोमयाजि स्वामीजी) सोम यज्ञ की अनुष्ठान करने वाले परिवार में पैदा हुए. बचपन में उनका नाम श्री राममिश्र था |  वे ७४ सिंहासनाधिपति [ आचार्यों] में से एक थे | इन ७४ सिंहासनाधिपति को स्वयं रामानुजाचार्य ने, हमारे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की उन्नति के लिए नियमित किया था | वे सोमयाजियार के नाम से भी जाने जाते थे. श्री-भाष्य का विवरण पहले उन्ही ने लिखा था | सोमयाजि स्वामीजी का वंश आज भी श्रीरंगम पेरियकोविल में वाख्य पंचांग का संकलन करने का कैंकर्य कर रहे हैं | श्रुतप्रकाशिक भट्टर, नायनार आच्चान पिल्लै और वेदांताचार्यार स्वामी ने अपने ग्रंथों में सोमयाजि स्वामीजी के श्रीसूक्तियों को निर्दिष्ट किया है |

कृपामात्र प्रसन्नाचार्यों का महत्व समझाने के लिए नायनार आच्चान पिल्लै स्वामी अपने “चरमोपाय निर्णय” ग्रन्थ में सोमयाजि स्वामीजी के “गुरु-गुणावली” ग्रंथ से श्लोक उद्धृत है | उन आचार्यों को “कृपामात्र प्रसन्नाचार्य” कहते हैं जो सिर्फ अपने कृपा के माध्यम से, उन सभी का उत्थान करने की अभिलाषा लेते हैं जो संप्रदाय के तत्त्वज्ञान मे दिलचस्पी रखते हैं|

यस्सापराधान् स्वपधप्रपन्नान् स्वकीयकारुण्य गुणेन पाति
स एव मुख्यो गुरुरप्रमेयस् तदैव सद्भिः परिकीर्त्यदेहि || 

अर्थ : वो आचार्य जो अपने अत्यंत कृपा के कारण अपने शिष्यों की रक्षा और उद्धार करते हैं, वैसे आचार्य ही सबसे मुख्य होते हैं | यही हमारे संप्रदाय का अटल विश्वास है और सम्प्रदाय के अधिक से अधिक भरोसेमंद लोगों की भी यही विश्वास है |

चरमोपाय निर्णय में एक ऐसी घटना के बारे में लिखा गया है जो स्वामी रामानुजाचार्य की अकारण कृपा पर प्रकाश डालता है | इस अकारण और दिव्य कृपा के पात्र बनकर ही स्वामी सोमयाजि स्वामीजी के दिल में सांसारिक सुखों से अलगाव पैदा हुआ |

सोमयाजि स्वामीजी , स्वामी रामानुजाचार्य के चरणो में आत्मसमर्पण करके कैंकर्य में लगे थे और तदनंतर अपने जन्म स्थान [कारांची] को वापस लौटे और कुछ और समय तक वहाँ रहे | जन्म स्थान जाने के कुछ ही दिनों में उनका दिल स्वामी रामानुजाचार्य के चरण कमलों के प्रति और आकर्षित हुआ लेकिन उनके पत्नी उनके जाने से सहमत नहीं थी और इस लिए सोमयाजि स्वामीजी ने रामानुजाचार्य की एक मूर्ती बनवाकर उसकी पूजा करने का निर्णय लिया | लेकिन सोमयाजि स्वामीजी उस मूर्ती की बनावट से संतुष्ट नहीं थे | उन्होंने एक मूर्तिकार से पुराने मूर्ती को नष्ट करके एक नई मूर्ती बनाने को कहा | उस रात, स्वामी रामानुजाचार्य सोमयाजि स्वामीजी के स्वप्न में आकर पूछे, ” मेरे पुराने मूर्ती को नष्ट करने की क्या अवश्यकता है? तुम जहाँ भी हो, अगर तुम यह नहीं समज सकते कि मेरे अभिमत अर्थात् मेरे उद्धार मे पूर्ण विश्वास नहीं है, तो यह मूर्ति बने तो भी तुम इससे भला क्या पा सकते हो? मेरे उद्धार पर अविश्वास होते हुए क्या मेरे मूर्ति पर लगाव हो सकता है?” सोमयाजि स्वामीजी अनायास अपने स्वप्न से जाग ऊठे, उस मूर्ति को एक सुरक्षित जगह पर रखकर, तुरंत अपने सांसारिक सुखों को त्याग दिया और श्रीरंगम कि ओर निकल पड़े |

श्रीरंगम पहुंचते ही स्वामी रामानुजाचार्य के चरण कमल पर आ पड़े और स्वामी के चरणो को अपने आसुओं से भिगा दिया | रामानुजाचार्य उनसे कारण पूछने पर, सोमयाजि स्वामीजी अपने स्वप्न के बारे में बताते हैं | स्वामी रामानुजाचार्य की दिव्य मुकुट पर, हमेशा कि तरह, एक बँध-मुस्कान दिखाई दी |  रामानुजाचार्य सोमयाजि स्वामीजी से कहते हैं , ” हे अबोध, पधारो ! मैंने यह सारी नाटक तुम्हे इस सांसारिक समस्याओं के  भार से मुक्त करने के लिए किया था | तुम्हे मेरी सराहना न हो फिर भी मुझे हमेशा तुम्हारी ख़्याल रहती है | मैं कभी मेरे शिष्यों को त्यागता नहीं  | जहाँ भी तुम हो, मेरी अनुकूलता सदैव तुम्हारी ओर हमेशा होगी, अथार्थ तुम्हारी अंतिम लक्षय जरूर पूरी होगी | निश्चिंत और आनंद से रहो ” | पेरियावाच्चान पिल्लै ने इस कथा का व्याख्यान दिया है | इस कथा के दौरान स्वामी रामानुजाचार्य, सोमयाजि स्वामीजी को ही नहीं बल्कि हम सभी भद्धात्माओं को यह सत्य समझाया कि उनके  चरण कमल के संबद्ध से सारे श्री वैष्णव जन निश्चिंत और आनंद से रह सकते हैं |

तिरुनेडुन्ताण्डकम् 27पेरियावाच्चान पिल्लै व्याख्यान – तिरुमंगै-आळ्वार (परकाल स्वामीजी – नायिका भाव में) एक सारस को अपने प्यार का दूत बनाकर तिरुकन्नपुरम के भगवान के पास, अपने दिल की बात व्यक्त करने हेतु भेंजी | पेरियावाच्चान पिल्लै स्थापित करते हैं कि तिरुमंगै-आळ्वार जब “तिरुकन्नपुरम ” का नाम लेते हैं तो उनमे एक अद्भुत और अनोखी मनोदशा होती है और वो मनोदशा बड़ी लाजवाब है | यह ऐसी एक अतुल्य और विशेष मनोदशा है जो स्वामी अनंताल्वान “तिरुवेंकटम“, भट्टर स्वामी “अलगिय मणवाल पेरुमाल” और सोमयाजि स्वामीजी “एम्पेरुमानारे चरणम् ” कहते समय प्राप्त होती है | हम जैसे साधारण जन ऐसे शब्द उच्चारण करने की इच्छा तो ज़रूर प्रकट कर सकते हैं मगर उन महापुरुषों की यह मनोदशा पाना असंभव और अकल्पनीय है |

तिरुवाय्मोळी 6.5.7नंपिल्लै ईडु व्याख्यान – पहले कही गयी उसी सिद्धांत को यहाँ दूसरी दृष्टिकोण  में दर्शाया गया है |  यहाँ नम्माल्वार [ परांकुश नायिका भाव में ] तुलैविल्लीमंगलम भगवान के संबन्ध को प्राप्त करने की लालसा-दशा को दर्शा रही थी | नम्पिल्लै यहाँ स्थापित करते हैं कि जब परांकुश नायकी एम्पेरुमान का नाम अपने होठों पे लेती है तो उन नामों की सुंदरता बढ़ती रहती है, बिलकुल वैसे जैसे अनंताल्वान, भट्टर और सोमयाजि स्वामीजी के महिमा से “तिरुवेंकटम” , “अलगिय मणवाल पेरुमाल” और “रामानुजाचार्य ” के नामों की सुंदरता बढ़ती है | यह अनोखी सुंदरता का रहस्य इन महानों का बेमिसाल प्यार और विशेष मनोदशा ही है |

वार्तामाला में कुछ कथाएँ हैं जो सोमयाजि स्वामीजी के यश और महिमा के बारे में प्रकाश डालते हैं | उनमे से कुछ अब हम देखेंगे:

  • 126 – यहाँ सोमयाजि स्वामीजी बहुत ही सुन्दर रूप से यह स्थापित करते हैं कि एक प्रपन्न [ जो शरणागति-मार्ग चुने हो] को केवल सर्वेश्वर श्रीमन नारायण ही उपाय होते हैं |  भगवान की कृपा का पात्र बनना हो तो स्वप्रयास त्यागे और भगवान की शरण कमल में आश्रय ले |  न भक्ति न प्रप्पति वास्तविक उपाय होते हैं, सिर्फ वो श्रियपति जिसपर हमारा सारा भोज होती है, वही सत्यसंकल्प, जो हमारे अंतिम लक्ष्य को प्रधान करते हैं, सत्य में हमारे उपाय होते हैं |
  • 279 – अप्पिळ्ळै [ सोमयाजि स्वामीजी से उम्र में छोटे तो थे लेकिन सुव्यवस्थित और महान श्रीवैष्णव थे] सोमयाजि स्वामीजी  को इस प्रकार सलाह दिया , “सोमयाजि स्वामीजी, आप तो बड़े पड़े- लिखे , सयान महापुरुष हैं जो हमारे पूर्वाचार्य के विश्वासों और रचनाओं को मानते हैं | आप को श्रीभाष्यम् और भगवद विषयों पर ज़्यादा से ज़्यादा अधिकार है | फिर भी, कृपया आप अपने धोती में एक पट्टी भांध लीजिये ताकी आप किसी भी तरह की भागवद-अपचार में न फँसें | ” उन दिनों में यह एक मामूली तरीका था जब किसी भी चीज़ या विषय की याद दिलाने के लिए कोई अपनी धोती में पट्टी भांध लेता है. जब वह उस पट्टी को देखे तो उसे उस विषय की याद आ जायेगी जिसे वह भूल गया हो. यहाँ अप्पिळ्ळै , सोमासियाण्डान्  को चेतावनी देते हैं ताकी आण्डान् किसी भी भागवत के खिलाफ अपराध या अपचार न करे क्योंकि वो हमारी स्वरुप-नष्ट कर देती है – बड़े से बड़े शिक्षित और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व भी इस जाल में गिर सकते हैं. इसीलिए स्वामी अप्पिळ्ळै ने स्वामी सोमासियाण्डान् को यह चेतावनी दी.
  • 304 – स्वामी सोमासियाण्डान् यह सलाह देते थे कि मनुष्य कभी भी सांसारिक आनन्दों में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए. उनके बताये गए कुछ कारण :
    अगर हम समज सकते हैं कि जीवात्मा परमात्मा पर पराधीन है, तो हम सांसारिक आनन्दों से दूर रहेंगे.
    अगर हम समज सकते हैं कि हमारी अस्तित्व का कारण भगवान की सेवा करना है तो हम सांसारिक आनन्दों से दूर रहेंगे.
    अगर हम समज सकते हैं कि सांसारिक संभंध अस्थायी है और सिर्फ भगवद संभंध स्थायी, शाश्वत और सत्य है तो हम सांसारिक आनन्दों से दूर रहेंगे.
    अगर हम समज सकते हैं कि ये जो शारीरिक सुखों और देहाभिमान से हम पीड़ित हैं वह भी अनित्य है तो हम सांसारिक आनन्दों से दूर रहेंगे.
  • 375 – जब स्वामी सोमासियाण्डान्  ने यह सुना कि किसी ने एक चरवाहे को दूध चुराने के कारण दंड दिया तो वे मूर्छित गिर पड़े. उन्हें तुरंत मैय्या यशोदा और कन्हैय्या की याद आ गयी. वे भावनाओं से अभिभूत हो गए यह सोचकर कि यशोदा मैय्या भी कृष्ण को इसी तरह मक्खन चुराने के लिए दंड दी होगी. स्वामी सोमासियाण्डान् की इस अद्बुत अनुभव, और सारे पूर्वाचार्यों के अनुभव की तरह, अवर्णनीय ही है|

इस प्रकार स्वामी सोमासियाण्डान् की शानदार जीवन की झलक हमें मिली है. वे पूरी तरह से भागवत कैंकर्य और निष्ठा में तल्लीन थे और स्वामी एम्बेरुमानार के प्रिय शिष्यों में से एक थे| आज हम सब स्वामी सोमाजि आण्डान् के शरण कमल में प्रार्थना करें कि हमारे इस जीवन काल में, उस कैंकर्य सागर की एक बूंद हम भी पी सके|

सोमासियाण्डान्  तनियन (ध्यान श्लोक ) :

नौमि लक्ष्मण योगीन्द्र पादसेवैक धारकम्
श्रीरामक्रतुनातार्याम श्रीभाष्यामृत सागरम्

अडियेन जानकी रामानुज दासी

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