श्रीः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
पूर्व अनुच्छेद मे हमने ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य “पराशर भट्टरर्” के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए अब हम ओराण्वळि के अन्तर्गत अगले आचार्य ( नन्जीयार ) के बारें मे चर्चा करेंगे ।
तिरुनक्षत्र : फालगुनि मास उत्तर फालगुनि नक्षत्र
अवतार स्थाल : तिरुनारायण पुरम् ( मेलुकोटे )
आचार्य : पराशर भट्टर
शिष्य : नम्पिळ्ळै, श्री सेनाधिपति जीयर इत्यादि
परमपद प्रस्थान : श्रीरंग
रचना : तिरुवाय्मोऴि 9000 पडि व्याख्यान , कन्निनुन् शिरुत्ताम्बु व्याख्यान , तिरुप्पावै व्याख्यान , तिरुवन्दादि व्याख्यान, शरणगति गद्य व्याक्यान , तिरुप्पल्लाण्डु व्याख्यान, रहस्य त्रय विवरण ( नूट्ट्टेट्टु नामक ग्रन्थ ) इत्यादि
नन्जीयर माधवर के रूप मे जन्म लेकर अद्वैत तत्वज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान बने । भविष्यकाल मे श्री पराशर भट्टर की असीम कृपा से वह नन्जीयर के नाम से प्रसिद्ध हुए और वह निगमान्त योगी और वेदान्ति के नाम से भी जाने गए ।
श्रीमाधवर अद्वैत तत्वज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान थे जिन्का निवास स्थान तिरुनारायणपुरम (मेलुकोटे) था । एम्पेरुमानार ( श्री रामानुजाचार्य ) की इच्छा थी की माधवर का परिवर्तन/सुधार हो और अद्वैततत्वज्ञान का त्याग कर श्रीविशिष्टाद्वैत को स्वीकार कर भगवान श्रीमन्नारायण की सेवा मे संलग्न हो । इसी सदिच्छा से श्री पराशरभट्टर को तिरुनारायणपुरम जाकर माधवर को सुधारने का आदेश देते है । श्रीगुरुपरम्परा के आधार पर यह स्पष्ट है की माधवर अद्वैतिन होने के बावज़ूद भी श्री रामानुजाचार्य को उनके प्रती सम्मान/आदर था ।
माधवर ने भी भट्टर के कई किस्से सुने और भट्टर से मिलने मे बहुत उत्सुक थे । भगवान की असीम कृपा से उन दोनो का सम्मेलन वाद–विवाद से शुरू हुआ और अन्ततः माधवर पराजित होकर भट्टर के शिष्य बन गए । वाद–विवाद के पश्चात , माधवर के घर आस–पास के अन्य श्रीवैष्णव पहुँचते है और माधवर को परिवर्तित देखर आश्चर्यचकित हो जाते है । उसी दौरान भट्टर से वाद–विवाद मे पराजित पाकर , भट्टर से विनम्र भावना से माधवर कहते है – आप श्रीमान श्रीरंगम से अपने आचार्य के आदेशानुसार, अपने निज वैभव को छोड़कर, सामान्य पोशाक पेहनकर मुझे परिवर्तन करने हेतु मुझसे आप श्रीमान ने वाद–विवाद किया .. इसी कारण मै आपका शुक्रगुज़ार/आभारि हूँ और आप श्रीमान बताएँ की अब मै क्या करूँ । श्रीभट्टर उनके विनम्रता से प्रसन्न होकर कहा – माधवर तुम अरुळिच्चेयल् (दिव्यप्रभंध) , सत्साम्प्रदाय के ग्रन्थो मे निपुणता प्राप्त करो और फिर श्रीरंगम चले गए ।
श्रीमाधवर अपनी सत्पत्नियों की (उनके) कैंकर्य के प्रति प्रतिकूल व्यवहार से, आचार्यसंभन्ध के वियोग मे, परेशान/असंतुष्ट होकर संयास लेने की इच्छा से अपने आचार्य की सेवा करने हेतु श्रीरंगम चले गए । जाने से पेहले अपना धन–संपत्ति दोनो बिवियों को बराबर बाँट कर (शास्त्र कहता है – संयास लेने से पेहले बिवियों का देखभाल/खयाल/ध्यान रखने का इन्तेज़ाम करना चाहिए) । संयासाश्रम स्वीकार कर माधवर श्रीरंगम की ओर निकल पडे । उनके यात्रा के दौरान, उनकी भेंट श्री अनन्ताळ्वान से हुई । श्री अनन्ताळ्वान ने उनसे संयासाश्रम लेने का कारण जाना और माधवर से कहा – वह तिरुमंत्र मे पैदा हो (आत्मस्वरूपज्ञान को समझे), द्वयमंत्र मे फले–फूले (एम्पेरुमान–पिराट्टि) की सेवा मे संलग्न हो और भट्टर की सेवा करे तो अवश्य एम्पेरुमान उनको मोक्ष प्रदान करेंगे । भट्टर माधवर की उत्कृष्ट आचार्य–भक्ति और निष्टा से प्रसन्न होकर उनको स्वीकार कर “नम्–जीयर” से सम्भोधित करते है और तबसे नम्–जीयर के नाम से प्रसिध्द हुए ।
भट्टर और नन्जीयर आचार्य–शिष्य संभन्ध के उपयुक्त/आदर्शस्वरूप उदाहरन है क्योंकि नन्जीयर सब कुछ छोड़कर अपने आचार्य की सेवा मे जुट गए । भट्टर अपने शिष्य नन्जीयर को तिरुक्कुरुगै पिरान्पिळ्ळान् के 6000 पाडि व्याख्यान ( जो तिरुवाय्मोळि पर आधारित है ) सिखाए । भट्टर के निर्देशानुसार नन्जीयर ने तिरुवाय्मोळि पर 9000 पाडि व्याख्यान की रचना किए । नन्जीयर की विशेषता यह थी की उन्होने अपने सौ वर्षों के जीवनकाल मे तिरुवाय्मोळि पर सौ बार प्रवचन दिए ।
नन्जीयर का आचार्य–भक्ति असीमित थी । उनके जीवन मे संघटित कुछ संघटनों पर विशेष दर्शन प्रस्तुत है ।
एक बार भट्टर अपनी पालकी पर सवार हुए थे तब नन्जीयर अपने एक भुज पर त्रिदण्ड रखे हुए आचार्य की पालकी को अपने दूसरे भुज से सहारा दिए । तब भट्टर नन्जीयर से कहे – “जीया, यह व्यवहार तुम्हारे संयासाश्रम के लिए शोभदायक नही है और तुम्हे मुझे इस प्रकार सहारा नही देना चाहिए” । यह सुनकर नन्जीयर कहते है – अगर मेरा त्रिदण्ड आपकी सेवा मे बाधा है तो मै अभी इसी वक्त इस दण्ड को तोडकर अपने संयास का त्याग कर दूंगा ।
एक बार नन्जीयर के कुछ अनुचर (एकांगि) श्रीभट्टर के आगमन से उनके बगीचे मे मची उपद्रव को लेकर नन्जीयर से शिकायत किए । नन्जीयर ने कहा – यह बगीचा उनके आचार्य की सेवा के लिए है नाकि भगवान की सेवा के लिए और आगे से यह बात को अच्छी तरह ध्यान मे रखते हुए उनकी सेवा करें ।
आचार्य अपना मस्तक शिष्य के गोद मे रखकर सोने का व्यावहारिक प्रथा पौरानिक काल से प्रचलित है । इसी संदर्भ मे एक बार श्री भट्टर नन्जीयर के गोद मे बहुत देर तक सो गए । जब भट्टर की निद्रावस्था सम्पूर्ण हुई उन्हे तब एहसास हुआ की उस दौरान नन्जीयर स्थितप्रज्ञ / निश्चल रहे । उनकी निश्चलता और दृढ़ता को देखर श्रीभट्टर ने उन्हे वापस द्वयमहामंत्र का उपदेश फिर से किया ।
नन्जीयर बहुत जल्दि अरुळिच्चेयल् सीखकर अरुळिच्चेयल् मे निपुण हो गए । हर रोज़ भट्टर नन्जीयर से अरुळिच्चेयल् पाशुरों को सुनकर उनका गूढ़ार्थ सुस्पष्ट अप्रत्यक्ष सुन्दर तौर से प्रस्तुत किया करते थे । एक बार नन्जीयर तिरुवाय्मोळि के 7.2.9 पाशुर को एक बार मे ही सुना दिया । यह सुनकर भट्टर मूर्छित हो गए और जब भट्टर मूर्छित अवस्था से उठे, उन्होने कहा की यह वाक्य पूर्ण तरह से पढ़कर सुनाना चाहिए और इसे पढ़ते वक्त इसका विच्छेद कदाचित नही करना चाहिए क्योंकि विच्छेद से वाक्य तात्पर्य
नन्जीयर के अरुळिच्चेयल् निपुणता को भट्टर हमेशा प्रसंशनीय मानते थे क्योंकि नन्जीयर तो संस्कृत के विद्वान थे जिन्की मातृ–भाषा तमिळ नहीं थी ।
भट्टर और नन्जीयर के बींच मे चित्ताकर्षक दिलचस्प वार्तालाप होते रहते थे । हलांकि संस्कृत विद्वान होने के बावज़ूद नन्जीयर हमेशा निश्चित रूप से अपने संदेहो का स्पष्टीकरण समाधान अपने आचार्य भट्टर से पाते थे । अब वही वार्तालाप का संक्षिप्त वर्णन भगवद्–बन्धो के लिए प्रस्तुत है –
- नन्जीयर भट्टर से पूछते है – क्यों सारे आळ्वार भगवान श्री–कृष्ण के प्रती आकर्शित थे, उसका क्या कारण है ? भट्टर इसका उत्तर कुछ इस प्रकार देते है – जैसे साधारण मानव/मनुष्य हाल ही मे घटित संघटनो को याद रखते है उसी प्रकार आळ्वारों ने अभी–अभी अवतरित भगवान श्री कृष्ण और उन्की लीलाओं के प्रती विशेष आकर्शन था । इसके अलावा कुछ आळ्वारों का अविर्भाव भगवान श्री कृष्ण के समय मे हुआ परन्तु भगवान से मिल नही पाए और इस कारण भी वह सारे आकर्शित थे ।
- भट्टर समझाते हुए नन्जीयर से कहते है – भगवान श्री कृष्ण गोप कुल ( नन्द कुल ) मे पैदा हुए । भगवान श्री कृष्ण जहा भी गए उनका सामना मामा कंस ने असुरनुचरों से हुआ और कई तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे – कब श्री कृष्ण आए और कब वह उनका संहार करें । हलांकि स्वाभिक रूप से श्री कृष्ण उतने सक्षम नही की वह असुरों का संहार करे (यानि श्री कृष्ण तब शिशोरवस्था/बाल्यवस्था मे थे) परन्तु इसके विपरीत मे देखे तो भगवान के भूतपूर्व–अवतार श्री रामावतार मे भगवान श्री–राम अस्त्र–शस्त्र विद्या सीखें, उनके पिता राजा दशरथ भी अस्त्र–शास्त्र मे निपुण थे और यही निपुणता उन्होने इन्द्र को सहायता देकर साबित किए, भगवान श्री राम के भाई – लक्ष्मण, भरत, शऋघ्न भी भलि–भाँन्ति अस्त्र–शस्त्र विद्या से परिचित और निपुण थे … यह सब सोचकर श्री पेरियाळ्वार सदैव श्री कृष्ण भगवान के लिए चिन्ताग्रस्त और व्याकुल रहते थे .. इसी कारण वह भगवान के खुशहालि के लिए प्रार्थना किया करते थे और यह स्पष्ट रूप से उनके तिरुमोळि मे उन्होने दर्शाया है ।
- कलियन् (तिरुमंगैयाळ्वार) अपने तिरुमोळि के अन्त पाशुरों के इस “ओरु नाल् शुट्ट्रम्” पाशुर मे कई दिव्यदेशों का मंगलशाशन करते है । नन्जीयर भट्टर से इस पाशुर मे कलियन् द्वारा किए गए मंगलशाशन के विषय पर संदेह प्रकट करते है । भट्टर तब कहते है – जैसे एक विवाहित स्त्री अपने सखा–सखीयों, रिश्तेदारों से मिलकर बिदा लेती है उसी प्रकार कलियन् इस भौतिक जगत मे स्थित दिव्यदेशों के एम्पेरुमानों का दर्शन पाकर उनका मंगलाशाशन करके श्रीधाम की ओर प्रस्थान हुए ।
- नन्जीयर भट्टर से पूछते है – क्यों भक्त प्रह्लाद जो धन–संपत्ति मे कदाचित भी रुचि नही रखते थे उन्होने अपने पोते महाबलि को यह श्राप दिया – “तुम्हारा सारा धन–संपत्ति का विनाश होगा अगर तुम भगवान का निरादर करोगे” । इस पर भट्टर ने कहा – जिस प्रकार एक कुत्ते को अगर दंड देना हो तो उसका मैला/गंदा खाना उससे दूर कर दिया जाता है उसी प्रकार का दंड प्रह्लाद ने अपने पोते को दिया ।
- नन्जीयर भट्टर से वामन चरित्र के संदर्भ मे कुछ इस प्रकार पूछते है – क्यों महाबलि पाताल लोक गए ? क्यों शुक्राचार्य की एक आँख चली गई ? भट्टर इसके उत्तर मे कहते है – शुक्राचार्य ने महाबलि को उनके धर्म कार्य करने से रोका और अपना आँख गवाए । श्री बलि महाराज ने अपने आचार्य की बात / सदुपदेश नही माने और अतः उन्हे दंड के रूप मे पाताल लोक जाना पडा ।
- नन्जीयर पूछते है – प्रिय भट्टर कृपया बताएँ क्यों श्री रामचन्द्र के पिताजी श्री दशरथ जो भगवान का वियोग सह नही पाऐ और प्राण त्यागने पर उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई ? भट्टर इसके उत्तर मे कहते है – श्री दशरथ को केवल सामान्य–धर्म (सच बोलने का धर्म) के प्रती लगाव था और पिता होने के बावज़ूद उन्होने उन्के संरक्षण का धर्म त्याग दिया – इस कारण उन्हे तो नरक प्राप्त होना चाहिए परन्तु भगवान के पिता का भूमिका निभाने के कारण उन्हे स्वर्ग की प्राप्ति हुई ।
- नन्जीयर पूछते है – भट्टर कृपया कर बताएँ क्यों वानर राजा सुग्रीव, विभीषण को स्वीकार करने मे संकोच कर रहे थे हलांकि विभीषण तो श्री रामचन्द्र के भक्त थे । इसके उत्तर मे भट्टर कहते है – जिस प्रकार भगवान श्री राम अपने शरणागत भक्त श्री विभीषण को स्वीकार करने और उनके संरक्षण के इच्छुक थे उसी प्रकार राजा सुग्रीव के शरणागत मे आए हुए भगवान को संरक्षण दे रहे थे और उन्हे चिंता थी की विभीषण कहीं भगवान को हानि न पहुँचाए ।
- नन्जीयर भट्टर से पूछते है – जब भगवान श्रीकृष्ण अपने दुष्ट मामा कंस का उद्धार करके अपने माता–पिता (देवकि–वसुदेव) से मिले, तब अत्यन्त वात्सल्य भाव मे मग्न होने से उनकी माता देवकि के स्तन भर गए । भगवान श्रीकृष्ण ने यह कैसे स्वीकार किया ? इस पर श्री भट्टर ने गम्भीरता–रहित बताया – यह एक माँ और बेटे के बींच का संबन्ध है । इसके विषय मे आगे भट्टर ने कहा – जिस प्रकार भगवान ने पूतना ( जो भगवान को विषपूरित स्तन दूध से मारना चाहती थी ) को माँ स्वरूप स्वीकार किया उसी प्रकार भगवान ने माँ देवकि के इस वात्सल्य भाव को स्वीकार किया ।
- भट्टर ययाति के जीवन चरित्र को अपने उपन्यास के दौरान समझाते है । यह उदाहरण के तौर पर समझाने के पश्चात नन्जीयर भट्टर से पूछते है – यह चरित्र का उद्देश्य क्या है स्वामि ? भट्टर यह चरित्र के उदाहरण से भगवान श्रीमन्नारायण (एम्पेरुमान) के विशेष स्थान और महत्ता/श्रेष्ठता को दर्शाते हुए समझाते है कि भगवान अपने प्रपन्न भक्तों को कम से कम साम्याप्ति मोक्ष देने मे सक्षम है और इसके विपरीत मे अन्य देवता अन्य प्राणि (जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ पूरा किया हो) को अपने योग्य कदाचित भी स्वीकार नही कर सकते और किसी ना किसी तरह के षडयंत्र से अन्य देवता जीव को स्वर्ग के प्रति असक्षम बनाकर उसे इस भौतिक जगत मे ढकेलते है ।
अनुवादक टिप्पणि – ययाति सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पूर्ण करने के पश्चात स्वर्ग मे प्रवेश करने का अधिकार पाकर स्वर्ग के अधिपति इन्द्र के सिंहासन के सहभागी हुए । परन्तु इन्द्र और अन्य देवता यह सहन नही कर पाए और एक षडयंत्र के माध्यम से ययाति को वापस इस भौतिक जगत के प्रति उकसाकर ययाति को भव सागर मे ढकेल दिया ।
कहते है ऐसे कई चिरस्स्मरणीय वार्तालाप है जिन्मे दिव्यप्रबंध (अरुळिच्चेयळ्) और शास्त्रों के गुप्त गूडार्थों का संक्षिप्त निरूपण है । यही वार्तालाप के आधार पर नन्जीयर ने दिव्यप्रबंधो पर अपनी निपुणता से विशेष टिप्पणि प्रस्तुत की और इसी का स्पस्टीकरण उन्होने उनके शिष्यों के लिये प्रस्तुत किया ।
नन्जीयार दिव्यप्रबंधो पर आधारित अपनी टिप्पणि के (जो नौ हज़ार पाडि व्याख्यान से प्रसिद्ध है) प्रतिलिपि को हस्तलिपि (पाण्डुलिपि) के रूप मे प्रस्तुत करना चाहते थे । इस कार्य के योग्य सक्षम व्यक्ति श्री नम्बूर वरदाचार्य हुए और वरदाचार्य ने यह कार्य सम्पूर्ण किया । कार्य संपूर्ण होने के पश्चात नन्जीयर ने उन्हे श्री नम्पिळ्ळै का नाम दिया और यही नम्पिळ्ळै हमारे सत्साम्प्रदाय के अगले दर्शन प्रवर्त हुए । वरदाचार्य की व्याख्यान को नन्जीयार अत्यधिक प्रसंशा करते थे जब वो नन्जीयार से भी अति उत्तम रूप मे गुप्तगुडार्थों को प्रस्तुत किया करते थे । यह नन्जीयर के उदारशीलता को दर्शाता है ।
नन्जीयार कहते थे – वह व्यक्ति तभी श्रीवैष्णव होगा अगर वह दूसरे श्रीवैष्णव के दुख को समझने के काबिल हो और यह जानकर दुखित हो । यह सद्भावना और सम्मान नन्जीयार को अपने काल के आचार्य और सभी श्रीवैष्णवों के प्रति था ।
नन्जीयर अपने अन्त काल के दौरान रोगग्रस्त हुए । उस अवस्था मे उनकी भेंट पेत्त्रि नामक स्वामि हुई । अरयर स्वामि (पेत्त्रि) ने नन्जीयार से पूछा – स्वामि मै आप की क्या सेवा कर सकता हूँ ? नन्जीयार ने व्यक्त किया – वह श्री तिरुमंगै आळ्वार द्वारा विरचित पेरियतिरुमोळि के तीसरे दशम का छटा पासुर सुनना चाहता हूँ । नन्जियर कहते है कि वह इस पदिगम को सुन्ने की इच्छा व्यक्त करते है जो तिरुमन्गै आळ्वाऱ का एम्पेरुमान के लिये संदेश है (आळ्वाऱ ने उन प्रथम ४ (4) पासुरो द्वारा अपने संदेश एम्पेरुमान् को व्यक्त किये परन्तु उसके पश्चात उनके कमज़ोरी के कारण उस संदेश को पूर्ण तरह से व्यक्त नही कर सके) – अरयर स्वामी नम्पेरुमाल के सामने इस प्रसंग का ज़िक्र करते है जिसे सुनकर नन्जीयर भावुक हो जाते है । नन्जीयर उनके अन्तकाल मे एम्पेरुमान से निवेदन करते है कि वह उनके स्वयम तिरुमेनि मे प्रकट हो और नम्पेरुमाल उन्की यह इच्छा को सम्पूर्ण करते है। नन्जीयर उस घटना से संतृष्ट होकर अपने शिष्यो को कई अन्तिम उपदेश देते है और अपने चरम तिरुमेनि को त्याग कर परमपदम को प्रस्थान हुए।
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